Jain Tirth Bhadravati / जैन तीर्थ भद्रावती


जैन तीर्थ भद्रावती

स्वप्नदेव केशरिया पार्श्वनाथ  

२४०० वर्ष प्राचीन श्री पार्श्वनाथ प्रभु की अनुपम जिन प्रतिमा

पुरातात्विक महत्व,अप्रतिम वास्तुकला से परिपूर्ण विशाल तीर्थ

अलौकिक कथानक,पौराणिक गाथाएँ,आस्था का केंद्र
'स्वप्नदेव केसरिया पार्श्वनाथ' जैन तीर्थ भद्रावती महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में चंद्रपुर से २६ किमी व नागपुर से १२५ किमी दूर, सर्व सुविधायुक्त अति मनोरम एक विशाल मंदिर परिसर है जिसे "जैन तीर्थ भद्रावती" नाम से जाना जाता है.भद्रावती तीर्थ में देवकुलिकाओं से सुशोभित भव्य जिनालय में मूलनायक श्री पार्श्वनाथ प्रभु की अनुपम जिन प्रतिमा विराजमान है श्याम पाषाण निर्मित प्रभु की २४०० वर्ष प्राचीन छ: फीट ऊँची और विशाल फणायुक्त अर्द्ध-पद्मासन प्रतिमा विराजित है यह जिन प्रतिमा अति प्रभावक है. प्रभु-प्रतिमा की कला तो अवर्णनीय है ही, प्रभु का मुखमंडल इतना आकर्षक है की दर्शन मात्र में मन प्रफुल्लित हो उठता है.

जैन तीर्थ भद्रावती मार्ग निर्देशन 
महाराष्ट्र के चंद्रपुर ज़िला का एक नगर भद्रावती ,चंद्रपुर ज़िला, जिसकी स्थापना सन् १९६४ में हुई भूतपूर्व नाम चांदा ज़िला था.भद्रावती को भांदक के नाम से भी जाना जाता है यहाँ कि मुख्य भाषा मराठी व जनगणना २०११ अनुसार जनसंख्या ६०५५६ है बस ,रेलवे व रोड से जुड़ा ,२० °६ ′३५ ″N ७९ °७ ′१२ ″E अक्षांश व देशान्तर पर स्थित भद्रावती एक ऐतहासिक नगरी है भांदक रेलवे स्टेशन याने भद्रावती नगर चंद्रपूर (चादा ) से २७ कि.मी.(१६ मील), वर्धा से १०० कि.मी.(६५ मील), नागपूर से १२० कि.मी.(८० मील) और हैदराबाद से करीब ३९० कि.मी.(२५० मील) अवस्थित है.महाराष्ट्र राज्य परिवहन (स्टेट ट्रांसपोर्ट) की बसें दिन में कई बार यहाँ पहुचती है. निकटतम एयर पोर्ट नागपुर है .

भद्रावती शहर एक ऐतहासिक नगरी
अनेक राजवंश का यहां राज्य रहा तीसरी से ५वी सदी वाकाटक युग,कलचुरी वंश ६वी से ७वी सदी, राष्ट्रकूट वंश ७वी से १०वी सदी, चालुक्य वंश ११ वी से १२वी सदी, यादव वंश १३ वी सदी तक ,गोंड वंश १३वी से १५वी सदी ,तदुपरांत गोंड शासन १७५१ में मराठा काल में समाहित हो गया १८५३ में ब्रिटिश भारत में यह नगरी शामिल हुई ,देश को आजादी के उपरान्त मध्य भारत के सभी मराठी इलाकों का सम्मिलिकरण करके एक राज्य बनाने की मांग को लेकर बड़ा आंदोलन चला. आखिर १ मई १९६० से कोकण, मराठवाडा, पश्चिमी महाराष्ट्र, दक्षिण महाराष्ट्र, उत्तर महाराष्ट्र (खानदेश) तथा विदर्भ, संभागों को एकजुट करके महाराष्ट्र की स्थापना की गई.भद्रावती भारतीय संस्कृति की एकता को प्रतिबिंबित करता है यहां जैन हिन्दू व बौद्ध धर्म के अनेक प्राचीन मंदिर है.भद्रावती में पुराने तालाबों, बावडियों तथा कुओं की संख्या लगभग १०० है. कई खंडहर,कई मूर्तियाँ, कई शिल्प यत्र तत्र बिखरे हुए आज भी भी दृष्टीगोचर होते है जो इस नगरी के भव्य मनोरम अतीत को दर्शाते है स्वयं भगवान पार्श्वनाथ की जो प्रतिमा मंदिर में प्रतिष्ठापित है, कहते हैं वह २४०० साल पूर्व की है भद्रावती को जैन युग के अत्यन्त प्रारम्भिक काल में तीर्थ स्थान के रूप में माना जाने लगा था.

भद्रावती एवं उसके आसापास के प्रदेश पर मौर्य, गुप्त, आंध्र राष्टकूट, चालुक्य एवं वाकाटक वंशो का अधिपत्य रहा. काफी समय बाद में उसपर कई दिनों तक चंद्रपुर के गोंड राजाओं ने राज्य किया .बाद में नागपुर के भोसलों ने यह प्रदेश पर राज्य किया .परंतु भद्रावती का प्राचीन वैभव इससे कई सदियों पहले लुप्त हो गया था जो कभी विद्या और संस्कृति का केन्द्र था, वह श्रीहीन होकर विस्मृति की गोद में सो गया. वैभव खंडहरो में बदल गया, शिल्प एवं वास्तु अस्त-व्यस्त होकर टूट-फूट गये समय के प्रभाव में भद्रावती अंग्रेजी राज में भांदक नामक एक छोटा उजडा सा स्टेशन भर रह गया और वहां गाव के नाम पर चंद झोपडे रह गए थे.स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शासन ने इसे पुनश्च ‘‘भद्रावती’’ के नामसे प्रतिष्ठित किया.

प्रतिमाजी का प्रकट होना
ईसवी १९०० के प्रथम दशक में भद्रावती गांव चारों तरफ से घने वन से घिरा हुआ था. इस गांव के किनारे पर ही पूर्व दिशा के जंगल में घुमते हुये चांदा (वर्तमान चंद्रपुर) के स्कॉटिश मिशन के मुखिया चर्च के बिशप (पादरी) को चंद्रिका देवी का मंदिर एवं उसी के आसपास प्रभु पार्श्वनाथ की प्रतिमा आधी जमीन में और आधी जमीन के उपर प्राचीन मंदिर के भग्नावशेषों से रक्षित, विराजमान दिखी. जिला प्रशासन को पादरी द्वारा सुचना मिलते ही पुरातत्व विभाग द्वारा कंटीले तारों के द्वारा मंदिरों की घेराबंदी की गयी और वहां ‘‘यह पुरातन स्मारक पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित है’’ ऐसा फलक लगवा दिया. तब तक जैन समाज इस प्रकटीकरण से अनभिज्ञ था.

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स्वप्न संकेत कथा
भद्रावती तीर्थ के पुनरुत्थान की कहानी एक अद्‌भुत स्वप्न से जुडी हुयी है. आकोला के पास सिरपुर में श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ का मंदिर है. श्री चतुर्भुज भाई इस मंदिर संस्था के व्यवस्थापक थे. सन १९०९ विक्रम संवत १९६६ की माघ-शुल्क ५ सोमवार की रात को उन्हें जो स्वप्न आया, उसका वर्णन ‘प्रकट पार्श्वनाथ’ नामक किताब में अहमदाबाद के श्री मोहनलालजी झवेरी ने निम्नानुसार किया है .पीछे एक दस हाथ लंबा काला नाग चल पडा. चतुर्भुज भाई जहां जाते है वह नाग भी उनके पीछे-पीछे जाता था.आखिर वे घूमते-घूमते थक जाते हैं परंतु नागराज ने उनका पीछा नहीं छोडा. तब उन्होंने नागराज से विनती की, ‘हे नागराज, मैंने तुम्हारा कोई अपराध तो किया नहीं, फिर आप मेरे पीछे क्यों पडे हैं?’ नाग ने मनुष्य की बोली में कहा ‘मै तुझे कुछ चमत्कार बताऊ, तू पांच सौ रुपये खर्च कर.आप कहते तो ठीक है, लेकिन मैं तो कंगाल हालत में हूँ, चाकरी करके उदर पोषण करता हूँ. पांच सौ रुपये कहां से लाऊं? उसने जबाब दिया...नाग ने पुछा ‘क्या तू इतने रुपये खर्च नहीं कर सकता?’मैं सच कहता हूं, अभी मेरे पास कुछ नहीं है, उसने कहा अच्छा तो तेरे पीछे देख, नागराज ने कहा. चतुर्भुज नाग की बात को सुनकर मन में बहुत घबराये कि यदि मैंने नजर पीछे घुमकर देखा तो नागराज मुझे डस लेगा. फिर भी उन्होंने डरते-डरते पीछे देखा, तो आश्चर्य...! वहां वे खडे थे, वहां जंगल नहीं था एक बडा नगर था उन्हें पश्चिम मुखी मंदिर में श्री पार्श्वनाथ प्रभु की पीले रंग की प्रतिमा दिखाई दी.तुरंत वह भगवान की स्तुति करने लगे. नागराज ने उस बीच में कहा-‘देख, यह भद्रावती नगरी और केशरीया पार्श्वनाथजी का बडा तीर्थ है, जो अभी विच्छेद है. इस तीर्थ का उद्धार करने का तू प्रयत्न कर’, कहकर नागराज अदृश्य हो गये. नागराज के अदृश्य होते ही उनकी आंखे खुल गयी.
उपरोक्त स्वप्न देखने के चार दिन पश्चात चतुर्भुज भाई माघ सुद ९ को अकोला से रवाना होकर भांदक आये. वहां एक वयोवृद्ध ब्राम्हण से उन्होंने पूछा ‘‘भद्रावती कहां है?’ ब्राम्हण देवता ने कहा कि भांदक को ही प्राचीन समय भें भद्रावती कहते थे.और भद्रावती-भांदक का संदेह मिटने पर वे गांव के पूर्व मै स्वप्न को साकार देखने के लिये घूमने लगे और चित्रों में दर्शित क्रमानुसार अंतत: उन्हें प्रतिमाजी के दर्शन हुये.अपार हर्षित चतुर्भुज भाई ने देखा कि श्री पार्श्वनाथ प्रभु की विशाल फनयुक्त प्रतिमा  है. अर्ध पद्‌मासन में विराजित प्रतिमाजी को देखकर उन्होंने अनुमान लगाया कि यह मुर्ति जरुर २४०० वर्ष पुरानी होनी चाहिये. कारण प्रभु पार्श्वनाथ की परंपरा में साधुपण अर्ध-पद्‌मासन में ही ध्यान करते थे.प्रतिमाजी पर का शिलालेख काल के प्रवाह में ओझल हो जाने से, निश्चित रुप से यह कहा नहीं जा सकता था कि मूर्ति कितनी प्राचीन है. पुरातत्व वेत्ता इस बात से सहमत थे कि मुर्ति लगभग दो हजार वर्ष से अधिक पुरानी होगी.
इतिहास के स्वर्णिम पन्नों से
प्राचीन तीर्थ का उद्धार करने की  प्रेरणा लेकर श्री चतुर्भुजभाई चांदा (चंद्रपुर) श्री संघ के समक्ष उक्त दृष्टांत का वर्णन किया. तत्पश्चात पूज्य मुनि सुमति सागरजी महाराज का चंद्रपुर श्री संघ के साथ भांदकजी नगरी में आगमन हुआ. संस्थापक अध्यक्ष श्री सिद्धकरणजी गोलेच्छा चांदा (चंद्रपुर) प्रथम सचिव श्री हिरालालजी फत्तेपुरिया वर्धा एवं तत्कालीन कार्यसमिति के अथक प्रयासो के फलस्वरुप फाल्गुन सुदी तृतिया विक्रम संवत १९७६ (इ.स. १९२१ ) के शुभ मुहूर्त पर पूज्य आचार्य मुनि म. सा. के पावन निश्रामें अत्यंत हर्षोल्लास के साथ हुए प्रतिष्ठा महोत्सव में इसी केन्द्र स्थान पर मूलनायक स्पप्नदेव श्री केसरिया पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान की गई। यह प्रतिमा अतिप्राचीन (२४०० वर्ष पूर्व की ) है। इस प्रतिमा की चौडाई १४० सें.मी. तथा ऊँचाई १३० सें.मी. (शीर्षतक) १५५ सें.मी. (फनसहित) है। प्रभू का चमत्कारिक रुप दर्शनार्थीयों के तन-मन में अतीव शांति प्रदान करता है. वही प्रतिमा अब नूतन मंदिर में पूर्व दिशा में स्थित भव्य एवं विहंगम मंदीरजी में माघ सुदी तृतिया, संवत २०६९ (१३ फरवरी २०१३ ) प्रतिष्ठित की गई. जिस वक्त चतुर्भुज भाई ने प्रतिमाजी के दर्शन किये, उस वक्त प्रतिमाजी का रंग फीका केसरिया था. इसीलीये भाविक लोगों ने इसे केशरिया पार्श्वनाथ स्वामी भद्रावती कहना आरंभ कर दिया. बाद में लेप लगाने से प्रतिमा श्यामवर्ण हो गयी.

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और शुरू हुआ तीर्थ पुनः निर्माण
प्रथम महत्वपूर्ण कार्य यह था कि प्रतिमाजी को प्राप्त करे और यह कार्य चांदा श्री संघ के तत्कालिन अध्यक्ष स्वर्गीय श्रीमान सिद्धकरणजी गोलेच्छा ने संपन्न किया. प्रतिमाजी की सुरक्षा में लगा हुआ ८०० रु. का खर्च संघाध्यक्ष श्री सिद्धकरणजी गोलेच्छा से लेकर चांदा के तत्कालीन जिलाधीश ने उपरोक्त प्रतिमा तथा उसके आसपास की २१ एकड भूमि मात्र आठ आना प्रति एकड लगान पर पट्टेपर १ .४ .१९१२ को अगल-अलग अनुबंधों द्वारा हस्तांतरित कर दी.
इन कार्यवाही के दरम्यान जब भद्रावती ग्रामवासियों को उस घटना का पता चला तों वे भी उसी भग्न मंदिर में जाकर नागदेवता की प्रतिमा समझकर भक्ति पूजा करने लगे. उन दिनों मे भद्रनाग मंदिर स्टेशन से गांव में आते हुये बीच मार्ग पर ही था. जहां पहले से ही दर्शन-पूजन किया जाता था.यहां भी भगवान के उपर सप्तफना नागदेवता का छत्र देखकर वे सिंदूरआदि लगाकर भगवान की पूजा बडे भक्ति भाव से करते थे. इस बात का प्रमाण तब मिला जब प्रतिमाजी का पुनर्लेप करवाया गया तब भूतकाल के किये कये दो-तीन लेपों की संपूर्ण खोल उतारी गयी. सारी खोल गेरुए रंग की चिकटी थी. निर्लेप होने के बाद प्रतिमाजी पर से मानो सारा नाग का कोष उतर गया. २१ .५० एकड के अलावा मंदिर, धर्मशालाएं, बाग-बगीचे बनाने के लिये अंग्रेज सरकार द्वारा और भी जमीन दी गयी जिसमें से करीब ९० एकड जमीन आज भी मंडल के पास है. उपरोक्त सारी जमीन भांदक से सटे मौजा घुटकाला रयतवारी ग्राम की है.भद्रावती नगर पालिका बनने के पश्चात घुटकाला रयतवारी ग्राम का समावेश नगर पालिका भद्रावती में हो गया.पश्चिम मुखी मंदिर के पश्चिम की ओर इसवी सन १९१२,१९१३ ,१९१४ में तीन बक्षीस पत्रों द्वारा तत्कालीन मालगुजारों ने करीब ६० एकड जमीन मंडल को प्रदान की जिस पर आज विभिन्न-धर्मशालाएँ, आश्रम, गोशाला, औषधालय, तथा पार्श्वनाथ सेवा-सदन आदि स्थित है.

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रुपेश -भक्ति                 कौशल-सुरुचि

मैत्री- केवन -काव्या 

संवत १९७६ में अर्थात सन १९२१/१९२२ में भद्रावती तीर्थ के जीर्णोद्धार का कार्य पूर्ण हुआ .इन सारी घटनाओं को काव्य में रुपांतरित किया स्वर्गीय यतिवर्य बालचंदजी महाराज ने, जो श्री भद्रावती तीर्थोत्पती स्तवन के रूप में जाना जाता है.प्रतिष्ठा होने के बाद जब घृत का अखंड दीप प्रज्वलित किया गया तब उसका काजल केसरिया रंग का निकला.मूल जिनालय में प्रभु पार्श्वनाथ के सन्मुख जो अखंड धृतदीप सदैव प्रज्वलित रहता है, उसका काजल काला नहीं बल्कि केशरिया रंग का होता है. यह कोई भी अपनी निगाह से देख सकता है, और इसीलिये भगवान पार्श्वनाथ को केशरिया पार्श्वनाथ स्वामी कहते है.

भांदक भारत भर में प्रसिद्ध तीर्थ भद्रावती में परिणित
पार्श्वनाथ प्रभु के प्रतिष्ठा के बाद पूर्व का छोटा सा भांदक भारत भर में प्रसिद्ध तीर्थ भद्रावती में परिणित हो गया. उस प्रतिमा को पहले पाया था एक ईसाई धर्मगुरु ने एक ईसाई राज्यधिकारी विदेशी महानुभाव गव्हर्नर सर फ्रेंक स्लाय इस चमत्कारिक मुर्ति से इतने अभिभूत हुये कि उन्होंने मंदिर का मुख्य द्वार निर्माण करवाया एवं इस अंग्रेज पुलिस के दो पुतले लगा दिये. तबसे मुख्य द्वार को स्लाय गेट के नाम से जाना जाता है. जिस सरकार का धर्म भारतीय धर्मो में से जैन, बुद्ध, हिन्दु, कोई भी नहीं था, जो सरकार
ईसाइयत को राजधर्म मानती थी और संपूर्ण रुप से विदेशी थी, उसी के कार्यकाल में तथा सहयोग से इस तीर्थ का जीर्णोद्धार एवं प्रतिष्ठ संभव हुयी,

यह दैवयोग है या चमत्कार?
स्व. श्री हीरालालजी फत्तेपुरिया तथा स्व. श्री सिद्धकरणजी गोलेच्छा एवं कमेटी के भगीरथ प्रयत्नों से भद्रावती तीर्थ का निर्माण १९१० (संवत १९६७) को शुरू हुआ. यह घटना इतनी रोमांचकारी एवं अभिनव थी कि उससे अभिभूत होकर चांदा के विदेशी पुलीस अधीक्षक श्री मीडलटन स्टुअर्ट ने ६ जुलाई १९२४ के टाइम्स ऑफ इंडिया में भाव विभोर होकर एक लेख लिखा था .

तीर्थ में स्थित अन्य मंदिर व सुविधा
तीर्थ प्रांगड़ में मुख्या मंदिरीजी के अतरिक्त श्री ऋषभदेव मंदिर,श्री शांति गुरुदेव मंदिर,तपस्वी मंदिर,दादावाडी,श्री देवी पद्‌मावती मंदिर व भैरवजी मंदिर है सभी मंदिरो की भव्य कलाकृति अत्यंत दर्शनीय है .यात्रियों की सुविधा के लिये सर्व सुविधा युक्त विशाल धर्मशालाएं ,भोजनशाला, विशाल पार्किंग सुविधा उपलब्ध है .जैन संतो साध्वियों के लिए विशाल स्वाध्याय भवन (उपाश्रय), गोवंश हेतु १२ एकड के विस्तृत भूमि पर संपूर्ण सुविधाओ से युक्त लगभग दो हजार जानवरों के रहने, चारा-पानी, दवा के दृष्टिकोण से विशाल गौशाला,पुष्पोद्यान तथा फलोद्यान ,आयुर्वेदिक औषधालय भी तीर्थ व्यवस्थापन द्वारा संचालित है .ट्रस्ट मंडल की ओर से अन्नदान योजना आरंभ हुयी है. इस योजना के तहत गरीबों के लिये नि:शुल्क भोजन की व्यवस्था की जाती है.

नवनिर्माण जीर्णोद्धार
 लगभग ८० वर्ष पूर्व में बने प्रथम मंदिर जीर्णोद्धार का प्रस्ताव ०१ .मार्च .१९९६ को मूर्त रूप में आया.वैशाख शुक्ल ८, बुधवार दिनांक १४ मई १९९७ को भुमिपूजन व वेशाख शुक्ल १० शनिवार दिनांक १७ मई १९९७ को खनन विधि सम्पन हुई .संवत २०५४ जेठ सुदी १०,रविवार दिनांक १५ .६ .१९९७ को नूतन मंदिरजी का शिलान्यास समारोह संपन्न हुआ .सन १९९७ से २०११ तक का निर्माण कार्य चलता रहा करीब ९० एकड में फैले श्री केशरिया पार्श्वनाथ एवं अन्य मंदिरों की तरह समूचे विदर्भ में दूसरा कोई भी मंदिर नहीं है. नवनिर्मित मंदिर का परिसर १ लाख ५० हजार वर्गफीट मे है. जिसमें से करीब ५० हजार वर्ग फुट में मंदिरों का निर्माण किया गया है.राजस्थान के गुलाबी पत्थर तथा संगमरमर के इस्तेमाल से मंदिर का सौंदर्य निखर उठा है. जैन शिल्पकला के साथ-साथ राजस्थानी तथा गुजराती शिल्पकला की झलक मिलती है. नये मंदिर की महत्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि इसमे किसी भी नये मुर्ति की प्रतिष्ठा नहीं की गई. दिनांक १३ फरवरी २०१३ को भगवान केशरिया पार्श्वनाथ तीर्थस्थान भद्रावती के गरिमामय एवं गोरवशाली इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय जुड गया प्रभु की पुन: प्रतिष्ठा, राजस्थानी एवं गुजराती शिल्पकला से युक्त नवनिर्मित भव्य मंदिर में की गयी.

तीर्थ मे होनेवाले विभिन्न महोत्सव एवं कार्यक्रम
१ . जन्मकल्याणक महोत्सव :- प्रतिवर्ष पौष वदी ९ से पोष वदी ११ तक तीन दिवसीय श्री पार्श्वनाथ जन्मकल्याणक महोत्सव मेले का आयोजन किया जाता है। इस मेले में आसपास के कई शहरो से हजारों श्रद्धालुगण सम्मिलित होते है. पौष वदी १० को रथयात्रा का जुलूस निकलता है. स्नात्रपूजा, बडी पूजाएं भावनाएं, आंगी, रोशनी आदि कार्यक्रम बडे आनंदोत्सव से मनाये जाते है. 
२ . श्री पार्श्वनाथ मोक्ष कल्याणक :- श्री पार्श्वनाथ मोक्ष कल्याणक के पावन अवसरपर श्रावण सुदी अष्टमी से तीन दिवसीय भक्तिमय अठ्ठम तप की आराधना की जाती है.
३ . पुन: प्रतिष्ठा दिवस :- माघ सुदी तीन को पुन: प्रतिष्ठा के स्मृति में ध्वजारोहण महोत्सव के रुप में मनाया जाता है.
४ . वर्षीतप पारणा :- वैशाख सुदी तीन को वर्षी तप तपस्वीयों के पारणे का आयोजन प्रति वर्ष तीर्थ भूमि पर किया जाता है.
५ . कार्तिक पूर्णिमा महोत्सव :- चातुर्मास समाप्ति का यह महत्वपूर्ण दिवस है। इस पूजा, भावना अधिक होती है.
६ . गुरुपूर्णिमा महोत्सव :- स्व. पू. गुरुदेव श्री शांतिसुरीश्वरजी महाराज साहब के स्मृति और भक्ति में माघ सुदी पंचमी (बसंत पंचमी) को गुरुभक्तों द्वारा महोत्सव का आयोजन करते है.
७ . होलिका उत्सव :- फागुन सुदी १५  और चैत्र वदी १  को आसपास के हजारों श्रद्धालु यात्री यहां आते है एवं होलीका उत्सव धार्मिक रुप से मनाते है.   

जैन तीर्थ भद्रावती  पार्श्वनाथ  जैन  मंदिर  रोड   भद्रावती , महाराष्ट्र  ४४२९०२  सम्पर्क 07875031440    09284405293    09850116799

श्रीमती भानुमति धीरजलाल शेठ परिवार नागपुर

महेंद्र - ग्रीष्मा                जय -धारा 

हिलोनी ,आदित्य            कृपा ,देवांश  

बौद्ध धर्म साधको का विशिष्ट स्थान
यहाँ आज भी बौद्ध अवशेष विस्तृत खण्डहरों के रूप में मौजूद हैं.चीनी यात्री युवानच्वांग सन् ६३९ ई. में भद्रावती पहुँचा था उसने १०० संघारामों का विवरण दिया है, जिसमें १,४०० भिक्षु निवास करते थे. उस समय भद्रावती का राजा सोमवंशीय था.बौद्ध धर्म के अनुयायी चीन के प्रसिद्ध साधक यात्री ने अपने प्रवास वर्णन में यहाँ के राजा का उल्लेख किया है. वे लिखते हैं,भद्रावती का राजा क्षत्रिय है ,वह अत्यंत विद्या प्रेमी, कला प्रेमी एवं धार्मिक है. भांडक से एक मील पर बीजासन नामक तीन गुफ़ाएँ हैं.ये शैलकृत हैं और उनके गर्भगृह में बुद्ध की विशाल मूर्तियाँ उकेरी हुई हैं.इनमें भिक्षुओं के निवास के लिए भी प्रकोष्ठ बने हुए हैं.एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि इन गुफ़ाओं का निर्माण बौद्ध राजा सूर्य घोष ने करवाया था.यहाँ पर अनेक बडे बडे मठ है. एक एक मठ में हजारो ऋषि -मुनि रहते है यह नगरी मंदिरो -विधालयों से सुशोभित है.यहां काफी संख्या में विद्यार्जन करनेवाले स्नातक वास करते थे.

पुरातन भवानी,चंडिका और महिषासुर मर्दिनी माता के मंदिर
ऐतिहासिक महत्व समझे जाने वाले भद्रावती भवानी,चंडिका और महिषासुर मर्दिनी इन देवियों के पुरातन मंदिर में नवरात्र के पावन अवसर पर शहर में उत्साह का वातावरण रहता है. इस समय भक्तगण इन तीनों मंदिर में दर्शन के लिए आतें है. पुराने सरकारी अस्पताल परिसर में भवानी माता का प्राचीन मंदिर एक गुफा में है. मंदिर में चार फुट ऊंची भवानी माता की आकर्षक मूर्ति है. गुफा में एक सभागृह और तीन गर्भागृह ऐसी मंदिर की संरचना है. पहले गर्भागृह में भवानीमाता, दूसरे गर्भागृह में सुप्रसिद्ध जैन मंदिर के समीप चंडिका माता का काफी पुरातन और आकर्षक मंदिर है.

भद्रनाग का मन्दिर
भांदक में हिन्दू मन्दिरादि के भी अवशेष प्रचुरता से मिलते हैं. भद्रनाग का मन्दिर, जिसका अधिष्ठाता देव नाग है, जो प्राचीन वास्तु का श्रेष्ठ उदाहरण है। नाग की प्रतिमा अनेक फनों से युक्त है. मंदिर की दीवारों के बाहरी भाग पर उकेरी गई शेषशायी विष्णु की मूर्ति भी कला का अद्भुत उदाहरण है.भद्रावती के खंडहरों में उत्खनन कार्य अभी तक नहीं के बराबर हुआ है. व्यवस्थित रूप से खुदाई होने पर यहाँ से अवश्य ही अनेक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्यों को प्रकाश में लाया जा सकेगा.

संकलन - संपादन : महेंद्र शेठ नागपुर

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